Biography of Sir A. P. J. Abdul Kalaam in hindi

सर ए. पी. जे. अब्दुल कलाम का जीवन वृतांत


जन्म: 15 अक्टूबर, 1931
अवसान : 27 जुलाई  2015

   

  मेरी कहानी भले ही किसी ओर चीज के बारे में न हो, लेकिन यह एक व्यक्तिगत लक्ष्य को बताती है, जिसे पारंपरिक सामाजिक ढांचे से अलग नहीं देखा जा सकता। मैंने उन व्यक्तियो के बारे में लिखना शुरू किया जिसने मेरे जीवन पर गहरा प्रभाव डाला।  इस के माध्यम से मैं अपने माता पिता, परिवार तथा शिक्षकों व गुरुओं को श्रद्धा -सुमन अर्पित करता हूँ। मैं सौभाग्यशाली हुँ की मुझे अपने छात्र एवं कर्मक्षेत्र में इनका सानिध्य मिला। 


 यह सिर्फ मेरी सफलता और दुःख की कहानी नहीं है। यह आधुनिक भारत के उन विज्ञान प्रतिष्ठानों की सफलताओं  एवं असफलताओं की भी कहानी है, जो तकनिकी मोरचे पर अपने को स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे है। यह मेरे युवा साथियो के अपार उत्साह और कोशिशों के प्रति भी सम्मान है जिन्होंने हमारे सपनो को सँजोया और साकार किया। यह हमारे समय की वैज्ञानिक आत्मनिर्भरता एवं प्रौद्योगिकी दक्षता हासिल करने के लिए भारत के प्रयासों की गाथा है। 

हम सब अपने भीतर एक पवित्र अग्नि के साथ जन्मे  है। हमारी कोशिश इस अग्नि को उड़ान देने की होनी चाहिए। जब ईश्वर आपके साथ है तो आपकी विजय निश्चित है।


आप सबको ईश्वर का आशीष मिले, ऐसी मेरी कामना है। 


मेरा जन्म 15 अक्टूबर, 1931 में मद्रास राज्य (अब तमिलनाडु) के रामेश्वरम कसबे में हुआ था। मैं आशियम्मा और जैनुलाबदीन की कई औलादो में से एक था, लंबे -चौड़े व सूंदर माता-पिता का छोटी कद-काठी का साधारण सा दिखने वाला बच्चा। मेरे पिता जैनुलाबदीन के पास न तालीम थी न दौलत। लेकिन इन मजबूरियों के बावजूद एक तानाई थी उनके पास और हौसला था। और मेरी माँ जैसी मददगार थी-आशियम्मा।  मुझे याद नहीं वो रोजाना कितने लोगो को खाना खिलाती थी;  लेकिन यह पक्के तौर पर कह सकता हुँ  की हमारे इतने बड़े परिवार में जितने लोग थे , उससे कई ज्यादा लोग हमारे यहाँ भोजन करते थे।  मेरे माता-पिता को समाज में एक आदर्श पति-पत्नी के रूप में देखा जाता था। मेरी माँ के खानदान का बड़ा सम्मान था और उनके एक वंशज को अंग्रेजो ने 'बहादुर' की पदवी दी थी। 

हम लोग अपने पुश्तैनी घर में रहते थे। जो कभी १९ वी सदी में बना था।  काफी बड़ा और पक्का मकान था रामेश्वरम की मस्जिद गली में।  मेरे पिता सादगीपसंद थे और सभी फिजूल व ऐशो आरामवाली चीजो से दूर रहते थे । पर घर में सभी आवश्यक चीजे भरपूर थी। असल में, मै कहूंगा की मेरा बचपन बड़ा महफूज था, भौतिक तौर से भी और भावनात्मक तौर से भी। 


मे अक्सर मेरी माँ के साथ ही रसोई में नीचे बैठकर ही खाना खाया करता था।  व मेरे सामने केले का पत्ता बिछाती  और फिर उस पर चावल एवं स्वादिष्ट सांभर देती, साथ में घर का बना अचार  और नारियल की ताजा चटनी भी होती। 


प्रसिद्ध शिव मंदिर, जिस के कारण रामेश्वरम प्रचलित तीर्थस्थान है, वह हमारे घर से पैदल १० मिनट की दुरी पर था। जिस इलाके में हम रहते थे, वहाँ ज्यादा आबादी मुसलमानों की थी, फिर भी काफी हिंदु घराने थे जो बड़े इत्तफाक से पड़ोश में रहते थे। हमारे इलाके में एक बड़ी पुरानी मस्जिद थी, जिसके कारण वह इलाका मस्जिद वाली गली कहलाता था। वहाँ मेरे पिता हर शाम मुझे नमाज पढ़ने के लिए ले जाया करते थे। 




इलाके की पूरानी मस्जिद जहाँ मेरे पिता मुझे हर शाम नमाज पढ़ने के लिए ले जाया करते थे


मस्जिद गली में मेरा घर

 रामेश्वरम के प्राचीन शिव  मंदिर पर हजारों तीर्थस्थान

रामेश्वरम मंदिर के सबसे बड़े पुजारी पक्षी लक्ष्मण शास्त्री मेरे पिताजी के बड़े गहरे दोस्त थे। मेरी बचपन की यादो में आंकी हुई एक याद यह भी थी की अपने अपने रवायती लिबास में बैठे हुए वो दोनों कैसे रूहानी मसलो पर देर-देर तक बाते किया करते थे। भिन्न भिन्न पूजा पद्धति के बावजूद उनके विचारों में अद्भुत समानताएं थी। मेरे पिता मुश्किल से मुश्किल रूहानी बातो को तमिल की आम जबान में बयां कर लिया करते थे।
एक बार मुझसे कहा था-


जब आफत आये तो आफत की वजह समजने की कोशिश करो, मुश्किलें हमेशा खुद को परखने का मौका देती है।

 जब मैं पूछने लायक बड़ा हुआ तो मैंने पिताजी से नमाज की प्रासंगिकता के बारे में पूछा। उन्होंने मुझे समझाया कि इसमें कुछ भी रहस्यमय नहीं है। 


 हरेक इंसान अपने समय, स्थान और भली या बुरी हालत में  उस दैवी शक्ति का हिस्सा बन जाता है जिसे हम ईश्वर या अल्लाह कहते है। हम संकटो, दुःखो या समस्याओं से क्यों घबराएँ? संकट और दुःख से हमें सिख मिलती है। मुसीबत हमेशा आत्मविश्लेषण का अवसर प्रदान करती है।

 एक बार मैंने उनसे पूछा की , " आप उन लोगो को यह बात  क्यों नहीं बताते , जो आप के पास मदद और सलाह मांगने के लिए आते है?"   उन्होंने अपने हाथ मेरे कंधो पर रखे और मेरी आँखों में देखा। कुछ देर वो चुप रहे, जैसे वे मेरी समझ की क्षमता जाँच रहे हो।  फिर धीमे और गहरे आवाज में मुझे उत्तर दिया जिसने मेरे भीतर नया उत्साह और ऊर्जा भर दी। -

जब इंसान कभी अपने को अकेला पाता है, तो उसे एक साथी की तलाश होती है, जो स्वाभाविक ही है। जब इंसान संकट में होता है , तो उसे किसीकी मदद की जरुरत होती है। जब वो खुद को किसी उलझन में फँसा पाता है तो उसे ऐसा साथी चाहिए होता है, जो उसे बाहर निकलने का रास्ता दिखा सके। बार बार तड़पाने वाली हर चाह एक प्यास की तरह होती है। मगर हर प्यास को बुझानेवाला  कोई - न - कोई मिल ही जाता है। जो लोग अपने संकट की घड़ियों में मेरे पास आते है , मै उनके लिए अपनी प्रार्थनाओ के जरिये ईश्वरीय शक्तिओ से सबंध स्थापित करने का माध्यम बन जाता हूँ। हालाँकि हर बार, हर जगह यह सही नहीं होता और न कभी ऐसा होना चाहिए। 

मैंने अपने विज्ञानं एवं प्रौद्योगिकी की सारी जिंदगी में पिताजी की बातों का अनुसरण करने की कोशिश की है। मैंने उन बुनियादी  सत्यों को समझने का भरसक  प्रयास किया है, जिन्हें मेरे पिताजी ने मेरे सामने रखा और मुझे संतुष्टि का आभास हुआ की एसी कोई दैवी शक्ति जरूर है जो हमें भ्रम, दुःखो, विवाद और असफलताओं से छुटकारा दिलाती है तथा सही राह दिखाती है। 

में करीब ६ साल का था जब पिताजीने एक लकड़ी की कश्ती बनाने का फैसला किया। जिस में वह यात्रियों को रामेश्वरम से धनुष्कोडी का दौरा करा सके। ले जाये और वापिस ले आए। वो समंदर के साहिल पर लकड़िया बिछा कर कश्ती का काम किया करते थे , एक ओर हमारे रिश्तेदार के साथ - अहमद जलालुद्दीन।  बाद में उनका निकाह मेरी बड़ी बहन जोहरा के साथ हुआ। अहमद जलालुद्दीन हालाँ की मुझसे १५ साल बड़े थे फिर भी हमारी दोस्ती आपस में जम गई थी। वो मुझे 'आजाद'  कह कर पुकारा करते थे। हम दोनों हर शाम लंबी सैर को निकल जाया करते थे।  मस्जिद गली से निकलकर हमारा पहला पड़ाव शिवमंदिर हुआ करता था। इस मंदिर की हम उतनी ही श्रद्धा से परिक्रमा किया करते थे जिस श्रद्धा से बाहर से आये हुए यात्री । 


जलालुद्दीन ज्यादा पढ़ लिख नहीं सके  उनके घर के हालात की वजह से। यही एक कारण रहा जिसकी वजह से  जलालुद्दीन मुझे पढ़ने के लिए हमेशा उत्साहित करते रहते थे और मेरी सफलताओं से प्रसन्न होते थे। पढाई न कर पाने की हलकी सी भी पीड़ा की झलक मुझे जलालुद्दीन में कभी भी देखने को नहीं मिली।   लेकिन मै जिस ज़माने क़ि बात कर रहा हूँ उन दिनों हमारे इलाके में सिर्फ वही एक ही शख्स था जो अंग्रेजी लिखना जानता था। जलालुद्दीन मुझे हमेशा शिक्षित व्यक्तियों, वैज्ञानिक खोजो, समकालीन साहित्यो और चिकित्सा विज्ञान की उपलब्धियों के  बारे में बताते थे। 


एक और सख्स जिसका मेरे बचपन पे गहरा असर पड़ा, वह मेरा चचेरा भाई शम्सुद्दीन। वह रामेश्वरम में अखबारों के एकमात्र वितरक थे। तमिल अख़बार रामेश्वरम  स्टेशन पर सुबह की ट्रैन से पहुचते थे। सन १९३९ में दूसरा विश्व युद्ध छिड़ा। उस वख्त मै ८ साल का था। किसी वजह से बाजार में इमली के बीजों की अचानक भारी माँग उठी, जिसका कारण मुझे समझ में नहीं आया। मै इन बीजो को इकठ्ठा करता और मस्जिदवाली गली में एक परचून की दुकान में बेच देता।  ईससे मुझे एक आना रोज मिल जाता था। विश्वयुद्ध की खबरे जलालुद्दीन मुझे बताते रहते थे। विश्वयुद्ध का हमारे यहाँ जरा भी असर नहीं था।  लेकिन जल्द ही भारत पर भी मित्र देशों की सेनाओ में शामिल होने का दबाव डाला गया और एक तरह का आपातकाल घोषित कर दिया गया। उसका पहला नतीजा इस रूप में सामने आया की रामेश्वरम स्टेशन पर आने वाली ट्रेन का रुकना बंद कर दिया गया। और अखबारों का बंडल अब रामेश्वरम और धनुषकोड़ी के बीच से गुजरने वाली सड़क पर चलती ट्रेन से फेंक दिया जाता। शम्सुद्दीन को मजबूरन एक मददगार रखना पड़ा, जो अखबारों के बंडल सड़क से जमा कर सके । वो मौका मुझे मिला। इस तरह शम्सुद्दीन से मुझे पहली तनख्वा मिली। 



हर बच्चा एक विशेष आर्थिक , सामाजिक और भावनात्मक परिवेश में अपने वंश के कुछ गुणों के साथ जन्म लेता है, फिर संस्कारो के मुताबिक उसे ढाला जाता है। मुझे अपने पिताजी से विरासत में ईमानदारी और आत्मानुशाशन मिला तथा माँ से ईश्वर पर विश्वास और रहमदिली। लेकिन जलालुद्दीन और शम्सुद्दीन की सोबत से जो असर मुझ पर पड़ा उससे सिर्फ मेरा बचपन ही महज अलग नहीं हुआ बल्कि आइंदा जिंदगी पर भी बड़ा असर पड़ा। 

बचपन में मेरे तीन पक्के दोस्त थे - रामानंद शास्त्री, अरविंदन और शिवप्रकाशन। ये तीनो ही ब्राह्मण परिवारों से थे। रामानंद शास्त्री तो रामेश्वरम मंदिर के सबसे बड़े पुजारी पक्षी लक्ष्मण शास्त्री का बेटा था। अलग-अलग धर्म, पालन -पोषण , पढाई-लिखाई को लेकर हममे से किसी भी बच्चे ने कभी भी आपस में कोई भेदभाव महसूस नहीं किया। 

फिर युद्ध ख़त्म हो गया। और हिंदुस्तान की आजादी बिलकुल यकीनी हो गई। मैंने अपने पिताजी से रामेश्वरम छोड़ने की इजाजत चाही। में डिस्ट्रिक्ट हेडक्वार्टर रामनाथपुरम जाकर पढ़ना चाहता था। शम्सुद्दीन और जलालुद्दीन मेरे साथ रामनाथपुरम तक गए मुझे स्वांट्ज़ हाई स्कूल में दाखिल कराने के लिए। जाने क्यों वो नया माहौल मुझे राझ नहीं आया। रामनाथपुरम बड़ा मशरूफ शहर था। और करीब ५०,०००की आबादी थी। लेकिन रामेश्वरम का सुकून और इत्मीनान कहीं नहीं था। घर बहोत याद आता था। और घर लौटने का कोई मौका में छोड़ता नहीं था। 


स्वांट्ज़ हाई स्कूल


जलालुद्दीन मुझसे हमेशा सकारात्मक सोच की शक्ति के बारे में बात किया करते थे और जब भी मुझे घर की याद आती या उदास होता तो मै उनकी कही बातो को मन से याद कर लेता। 

स्वांट्ज़ हाई स्कूल में दाखिल होने के बाद एक १५ साला लड़के के तमाम शोख जो हो सकते थे मेरे अंदर जाग उठे। मेरे एक शिक्षक अयादुरै सोलोमन उत्सुक छात्रों के लिए एक मार्गदर्शक थे ।  रामनाथपुरम में रहते हुए अयादुरै सोलोमन से मेरे संबंध गुरु-शिष्य से हटकर काफी प्रगाढ़ हो गए थे। अयादुरै सोलोमन कहा करते थे -

"जीवन में सफल होने और नतीजो को हासिल करने के लिए तुम्हे तीन प्रमुख शक्तिशाली ताकतों को समझना चाहिए - इच्छा, आस्था और उम्मीद"


उन्होंने ही मुझे सिखाया था कि मैं जो कुछ भी चाहता हुँ, पहले उसके लिए मुझे तीव्र इच्छा करनी होगी, फिर निश्चितरूप से मै उसे पा सकूंगा। 

मैं खुद अपनी जिंदगी का ही उदहारण लेता हूँ। बचपन से ही मै आकाश और पक्षियों के उड़ने के रहस्य से काफी आकर्षित था। मै सारस को समुद्र के ऊपर मँडराते और दूसरे पक्षियों को ऊँची उड़ान भरते देखा करता था। हालाँकि मै एक बहुत ही साधारण स्थान का लड़का था, लेकिन मैंने निश्चय किया कि एक दिन मै भी आकाश में ऐसी ही उड़ाने भरूँगा; और सचमुच आगे चलकर आकाश में उड़ान भरने वाला रामेश्वरम का पहला बालक निकला। 




स्वांट्ज़ हाई स्कूल के टीचर्स
बाई ओर खड़े है अयादुरै सोलोमन
दाई ऒर बैठे है रामकृष्ण अय्यर


अयादुरै सोलोमन एक महान शिक्षक थे। वो कहा करते थे - 

"निष्ठा और विश्वास से तुम अपनी किस्मत बदल सकते हो। "

स्वांट्ज़ हाई स्कूल में शिक्षा खत्म करने के बाद सन १९५० में मैं इंटरमीडिएट पढ़ने के लिए मेने त्रिची के सेंट जोसेफ कॉलेज में दाखिला ले लिया। जब B.Sc. के लिए मैने दाखिला लिया तो हायर एज्युकेशन के बारे में सिर्फ इतना ही जानता था। यह नहीं जानता था के हायर एज्युकेशन के लिए कुछ और भी हो सकता है। न ये जानता था के साइंस पढ़के फ्यूचर के लिए और क्या मौके हासिल हो सकते है। B.Sc. पास करने के बाद ही जान पाया कि भौतिकी मेरा विषय नहीं था। अपने ख्वाब को पूरा करने के लिए मुझे इंजीनियरिंग में जाना चाहिए था।  इंजीनियरिंग में तो इंटरमीडिएट की पढाई पूरी करके भी जा सकता था। 

पता नहीं क्यों कुछ लोगो का ऐसा ख्याल है कि साइंस आदमी को खुद से मुल्कर कर देती है। लेकिन मेरे लिए तो साइंस एतमाद, विश्वाश , रूहानी तस्किन की वजह रही है।



कभी न करने से तो देर ही भली। 


मैंने खुद को समझाया और मद्रास इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी (MIT) में दाखिला लेने के लिए चक्कर लगाने शुरू किए। उस समय दक्षिण भारत  में तकनिकी शिक्षा के लिए मशहूर यह एक विशेष संस्थान था। 

किसी तरह मै MIT के लिस्ट में तो आ गया। लेकिन उसका दाखिला बहोत महंगा था। कम से कम १००० रूपए की जरुरत थी। और मेरी माँ के पास इतने रूपए नहीं थे। उस वक्त मेरी बड़ी बहन जोहरा ने अपने सोने के कड़े और गहने गिरवी रख कर मेरी फ़ीस का इन्तजाम किया। मुझ पर उसकी यह उम्मीद और यक़ीन देखकर में मसीज़ गया। मेने अपनी कमाई से ही उनके गिरवी रखे जेवरों को छुड़ाने की ठानी। उस वख्त मेरे पास पैसा कमाने का सिर्फ यही एक रास्ता था कि में कड़ी मेहनत कर के छात्रवृति हासिल करू। में पूरी मेहनत और लगन से पढाई में जुट गया।


MIT में सबसे ज्यादा मजा आया। वहाँ दो हवाईजहाज देखकर जो उड़ान से बरी कर दिए थे मुझे उनकी तरफ एक अजीब सा खिंचाव महसूस होता था। और जब सब लड़के हॉस्टल लौट जाते थे, में कई कई घण्टे उनके पास बैठा रहता था। पहला साल मुकम्मल करने के बाद जब मुझे अपने एक विशेष विषय का चुनाव करना था तो मैने फ़ौरन एरोनॉटिकल इंजीनियरिंग का चुनाव कर लिया। 


MIT की तालीम के दौरान तीन टीचर्स ने मेरी सोच को मूर्त स्वरुप दिया। प्रो. स्पॉन्डर, प्रो. के.ए. वी. पंडाले और प्रो. नरसिंघाराव।


प्रो. स्पोन्डर मुझे टेक्निकल ऐरोडायनेमिक्स सिखाते थे। वे ऑस्ट्रिया के थे और एरोनॉटिकल इंजीनियरिंग का उन्हें खासा अनुभव था। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान वह नाजियों द्वारा बंदी बना लिए गए थे और उन्हें एक नजरबन्द शिविर में कैद रखा गया था। स्वाभाविक था की जर्मनो के प्रति उनमे घृणा भर गई। संयोग से एयरोनॉटिकल विभाग के प्रमुख एक जर्मन - प्रो. वॉल्टर रेपेन्थिन थे। उस समय MIT के डायरेक्टर डॉ. कुर्त टेंक हुआ करते थे। वो एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग के क्षेत्र में एक जानी मानी हस्ती थे और जर्मनी के एक सीट वाले लड़ाकू विमान फोक वुल्फ ( एफ. डब्ल्यू. १९० ) का डिजाईन उन्होंने ही तैयार किया था। दूसरे विश्वयुद्ध के समय यह असाधारण लड़ाकू विमान था। बाद में डॉ. टैंक बैंगलोर स्थित हिंदुस्तान एयरोनॉटिकल लिमिटेड (HAL) में चले गए और वहाँ उन्होंने भारत का पहला लड़ाकू विमान H. F. 24 मारुत तैयार किया। 









इन संकटो एवं नाजियों के कष्टो के बावजूद डॉ. स्पोन्डर ने अपने व्यक्तित्व को बचाये रखा। वे हमेशा शांत और ऊर्जावान रहते थे। वे नई से नई तकनीक के बारे में पूरी जानकारी रखते थे और अपने विद्यार्थियो से भी यही उम्मीद रखते थे। मैंने एरोनॉटिकल इंजीनियरिंग को अपना विषय चुनने से पहले उनसे सलाह ली थी। उन्होंने मुझे समझाया था कि,-



"किसीको भविष्य को लेकर कभी भी चिंता नहीं करनी चाहिए; बल्कि इसके बजाय ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि पढाई के लिए जो भी क्षेत्र चुना है , उस विषय में पूरी मेहनत, उत्साह और धैर्य के साथ पढाई करनी चाहिए। "


में खुद भी होने वाले इंजीनियरिंग स्टूडेंटस से यह कहना चाहता हु कि जब वो अपना स्पेशलाइजेसन का चुनाव करे तो ये देखे की उनमे कितना शोख है, कितना उत्साह है और लगन है उस ओदे में जाने के लिए। 


प्रो. के. ए. वी. पंडाले ने मुझे ऐरोस्ट्रक्चर डिजाईन सिखाया और उसका विश्लेषण भी। वो बड़े खुशदिल और दोस्त टीचर थे। और हर साल अध्ययन में कोई न कोई नया तरीका नझरिया लेके आते थे। उन्होंने ही स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग के छूपे हुए पहलू को पूरी तरह खोलकर हमारे सामने रखा। आज भी मेरा मानना है कि जो भी  प्रो. पंडाले के पास पढ़ा है, वह इस बात से पूरी तरह सहमत होगा की प्रो. पंडाले एक महान बुद्धिजीवी एवं अध्ययन करनेवालो में थे, लेकिन उनमे घमंड नाम की कोई भी चीज़ नहीं थी। उनके छात्र कक्षा में उनसे तमाम बिंदुओं पर असहमति जता सकते थे। 


प्रो. नरसिंघाराव गणितज्ञ थे और वो हमें ऐरोडायनामिक्स की थियोरी सिखाया करते थे। उनकी क्लास में दाखिल होकर मुझे मैथेमैटिकल फिजिक्स बाकी तमाम विषयो से ज्यादा अच्छा लगने लगा।  ऐरोडायनामिक्स एक बहोत ही मजेदार विषय है, जिसमे एक आजादी है। आजादी और पलायन, गति और हलचल तथा सरकने एवं प्रवाह के बीच जो बड़ा फर्क है , वही इस विज्ञान का रहस्य है। मेरे पसंदीदा शिक्षक ने मुझे इन सच्चाइयो का रहस्य बताए। ऐरोडायनामिक्स के बारे में उन्होंने मेरी उत्सुकता और बढ़ा दी। 


MIT में मेरा तीसरा और अंतिम वर्ष परिवर्तन लेकर आया। मेरे आने वाले जीवन में इसका गहरा असर पड़ना था। उन दिनों पुरे देश में राजनीतिक समाज बनाने औद्योगिक प्रयासों की एक नई बयार आई हुई थी। उन दिनों आम विचार था कि सिर्फ वैज्ञानिक विधियाँ ही ज्ञान का एकमात्र सही रास्ता है। मुझे आश्चर्य हुआ अगर ऐसा हुआ तो आध्यात्मिक लगाव का क्या होगा? मैं तो गहरे धार्मिक लगाव के साथ जुड़ा हुआ था। मुझे बचपन से सिखाया गया था कि ज्ञान हमारे अंदर के अनुभवों से मिलता है। 


कोर्स पूरा होने के बाद मुझे निचले स्तर के करीब से हमला करनेवाले लड़ाकू विमान का डिजाईन तैयार करने की परियोजना में लगा दिया। इस परियोजना में मेरे साथ चार ओर साथी थे। मैने वायु गतिकी डिजाईन को तैयार करने और उसकी ड्राइंग बनाने की जिम्मेवारी ली थी। जब की मेरे साथियो ने विमान के संचालक शक्ति, रचना, नियंत्रण और उपकरणों के डिजाईन की जिम्मेवारी आपस में बाँट ली। 


एक दिन मेरे डिजाईन शिक्षक प्रो. श्रीनिवासन ने ,जो उस समय MIT के निर्देशक भी थे, मेरे काम की समीक्षा की और इसे निराशाजनक बताते हुए इस पर अपना असंतोष जाहिर किया। काम में देरी के लिए मेने कई बार उन से माफ़ी मांगी और सफाई भी दी; लेकिन प्रो. निवासन ने एक न सुनी। आख़िरकार काम पूरा करने के लिए मैंने एक महीने का वख्त मांगा। उन्होंने कुछ देर तक मेरी ओर देखा और बोले, "देखो नौजवान, आज शुक्रवार है, मै तुम्हे तीन दिन का वख्त देता हुँ। अगर सोमवार सुबह तक मुझे यह ड्राइंग नहीं मिली तो तुम्हारी छत्रवृति रोक दी जायेगी। " मेरे मुंह से शब्द नहीं निकले। छत्रवृति ही मेरे लिए सबकुछ थी और यह वापस ले ली जाती तो में एकदम बेसहारा हो जाता। उस रात मैने खाना नहीं खाया और रात भर ड्राइंग बोर्ड पर काम करता रहा। अगले दिन सुबह सिर्फ घंटे भर का समय निकाला, जिसमे तैयार होकर नास्ता किया। रविवार सुबह मेरा काम पूरा होने के करीब ही था। तभी मुझे अचानक लगा की जैसे मेरे कमरे में कोई है। प्रो. श्रीवासन दूर खड़े मुझे देख रहे थे। वो सीधा जिमखाना से आ रहे थे और टेनिस के कपड़ो में थे तथा मेरा काम देखने के लिए ही यहाँ रुके थे। मेरा काम देखने के बाद उन्होंने मुझे अपने गले लगा लिया और तारीफ करते हुए मेरी पीठ थपथपाई। उन्होंने कहा ,'मुझे पता था कि तुम्हारे भीतर तनाव पैदा हो रहा है और काम पूरा करने के लिए में जो समय तुम्हे दे रहा हूँ , उसमे वह संभव नहीं होगा। मुझे जरा भी उम्मीद नहीं थी की इतने भयंकर तनाव में भी तुम अपना काम पुरा कर लोगे।


परियोजना के बाकी समय के दौरान मेने निबंध प्रतियोगिता में हिस्सा लिया। उसका आयोजन MIT तमिल संगम (साहित्यिक संस्था) ने किया था। मैंने 'आइए , अपना खुद का विमान बनाए' शीर्षक से तमिल में एक लेख लिखा। लेख सचमुच बहोत दिलचस्प था। मै प्रतियोगिता जीत गया और पहला इनाम पाया। 


MIT से में बैंगलोर के HAL(हिंदुस्तान ऐरोनॉटिक्स लिमिटेड) में बतौर ट्रेनिंग दाखिल हो गया। HAL से जब में एरोनॉटिकल इंजीनियरिंग ग्रेजुएट बनकर निकला तो जिंदगी ने दो मौके सामने खड़े कर दिए और दोनों मेरी प्रवास के उड़ान के ख्वाब पुरे कर सकते थे। एक भारतीय वायुसेना का था और दूसरा रक्षा मंत्रालय के तकनिकी विकास एवं उत्पादन निर्देशालय D. T. D.& P. का। मैंने दोनो में आवेदन भेज दिया और दोनों ही जगह से मुझे इंटरव्यू का बुलावा आया। एयर फाॅर्स के लिए मुझे दहेरादून बुलाया गया था और रक्षा मंत्रालय के लिए दिल्ही। 


मेरे दोनों मुकाम २००० किमी के फासले पर थे। यह पहला मौका था मेरा अपने विराट वतन को देखने का। खिड़की पर बैठा मैं इस देश की सरजमीन को पाँव तले से बहता हुआ देख रहा था। हैरान था कि उत्तर की तरफ सफर करते हुए एक ही मुल्क का लैंडस्केप कैसे बदलता जाता है। 


मैं एक हफ्ता दिल्ही में ठहरा। रक्षा मंत्रालय का इंटरव्यू दिया। इंटरव्यू काफी अच्छा हुआ था। पूछे गए सारे प्रश्न आम थे। ऐसा कोई भी प्रश्न नहीं था , जो मेरी योग्यता को चुनोती देनेवाला हो। वहाँ से में एयर फाॅर्स सिलेक्शन बोर्ड का इंटरव्यू देने के लिए दहेरादून चला गया। इस चुनाव बोर्ड में बुद्धि के बजाय व्यक्तित्व पर ज्यादा जोर था। शायद वे स्पष्ट तौर पर शारीरिक योग्यता को ही देख रहे थे। भीतर की उतेजना के बाद भी में शांत दिख रहा था। दृढ संकल्प था , लेकिन साथ में चिंतित भी। मन में पूरा विश्वाश होते हुए भी तनाव था। वायुसेना के लिए २५ में से जिन ८ उम्मीदवारोंको कमीशन अधिकारी के लिए चुना गया उनमे से में नौंवे नंबर पर आया। मेरा दिल बैठ गया। बहोत मायुस हुआ और कई दिन तक अफ़सोस रहा कि एयर फाॅर्स में जाने का मौका मेरे हाथ से निकल गया। में ऋषिकेश चला गया दिल पर ये बोझ लेकर के आने वाले दिन बड़े सख्त होंगे। 


गंगा में स्नान किया और फिर चलता हुआ पास की पहाड़ी पर शिवानंद आश्रम तक पहुँच गया। स्वामी शिवानंद से भेट हुई। देखने में बिलकुल गौतम बुद्ध लगते। सफ़ेद दूधिया धोती और पाँव में लकड़ी की खड़ाव। उनकी बच्चों सी मासूम मुस्कान और सादादिली देखकर बहुत प्रभावित हुआ मै। मैंने बताया उन्हें की कैसे मैं इंडियन एयर फाॅर्स में भर्ती होने से रह गया और मेरी कितनी सदित ख्वाइश थी आसमानों में उड़ने की, प्रवास करने की। वो मुस्कुरा दिए और बोले-


" ख्वाइश अगर दिल और जान से निकली हो और पवित्र हो और उसमें शुद्धता हो तो उसमें कमाल की एक विद्युतचुम्बकीय ऊर्जा होती है, एक मर्की मकनती सी ताक़त होती है। दिमाग जब सो जाता है तो वो ऊर्जा रात की खामोशी में बाहर निकलती है और सुबह कायनात, ब्रह्माण्ड से सितारों की गति रफ़्तार को अपने साथ समेटकर दिमाग में लौटाती है। इसीलिए जो सोचा है उसकी सृष्टि आवश्यक है। मुर्तखलिफ होगा। तुम विश्वास करो इस असली बंधन पर, इस वचन पर की सूरज फिर से लौटेगा और बहार फिर से आएगी।"



अपने भाग्य को स्वीकार करो और जाकर अपना जीवन अच्छा बनाओ। भाग्य को मंजूर नहीं था कि तुम वायुसेना के पायलट बनो। वह तुम्हे जो बनाना चाहता है , उसके बारे में अभी कोई नहीं बता सकता;लेकिन भाग्य पहले से ही तय हो चूका है। अपनी इस असफलता को भूल जाओ। इसे पहले से ही तय रस्ते की ओर बढ़ा हुआ एक कदम समझो। 


जब शिष्य चाहेगा, गुरु हाजिर होगा। कितना सच है यह। यहाँ मुझे एक ऐसा गुरु मिला जिसने मुझे उस वक्त रास्ता दिखाया जब मुझे सबसे ज्यादा जरूरत थी। उन्होंने मेरे पिता की सिखाई हुई बातो को दोहरा दिया। 


में दिल्ही लौट आया। रक्षा मंत्रालय से अपने इंटरव्यू के नतीजे के बारे में पता किया। जवाब में मुझे अपॉइंटमेंट लेटर थमा दिया गया और अगले दिन से सीनियर साइंटिफिक आसिस्टंट मुकरर कर दिया गया २५० रुपए की महानत तनखा पर।


तीन साल गुजर गए। उन्ही दिनों बैंगलोर में एरोनॉटिकल डेवलपमेंट एस्टेब्लिशमेन्ट में A. D. E. कि स्थापना हुई और मुझे वहाँ पोस्ट कर दिया गया। बैंगलोर कानपूर से बिलकुल विपरित शहर था। मैं अपने डाईरेक्टरोइट की पोस्टिंग का एक साल वहाँ गुजार चुका था।


 दरअसल हमारे देश में ये एक अजीब सा तरीका है, एक अजीब सा ढंग है अपने लोगो को हर दर्जा तक निचौड़ लेने का। जो हमारे लोगो को इंतहा नापसंद बना देता है। शायद इसीलिए की सदियो इस देश ने गेरमुल्क की तहजीबो के जख्म भी खाए है और उन्हें अपने दामन में जगह भी दी है। अलग अलग हुक्मरानो से वफ़ा करते करते हम अपनी हैसियत खो बैठे है। बल्कि हमने एक ओर ही किसम की खूबी पैदा कर ली है कि एक ही वख्त में हम रहमदिल भी है और बेरहम भी, संवेदनशील भी है और कठोर भी। जितने गहरे है उतने ही चंचल। ऊपर से देखो तो बड़े ही खुशरंग और हुबरु नजर आते है, लेकिन कोई गौर से देखे तो अपने हुक्मरानो की एक बेढब नक़ल से ज्यादा कुछ नहीं है। मैने कानपूर में कल्ले में दबाए हुए पान वाले नवाब वाजीद अली शाह के नकलची बहुत देखे है और बैंगलोर में फिरंगीओ के अंदाज में कुत्ते की जंजीर थामे टहलते हुए साहिबो की कमी नहीं। बैंगलोर  में रहकर में रामेश्वरम के सुकून और गहरे शांत वातावरण के लिए तरसता था। 


पहले साल तो A.D.E. में कोई ज्यादा काम नहीं था। एक प्रोजेक्ट टीम बनाई थी की तीन सालों में एक स्वदेशी होवरक्राफ्ट तैयार करे, और वो वख्त से पहले तैयार हो गया। नंदी उसका नाम रखा गया शिव की सवारी के आधार पर। मैने अपने साथियो से कहा- 'यह एक उड़ान का मशीन है, जिसे किसी घुनी के समूह ने नहीं, बल्कि इंजीनियर की काबिलियत ने बनाया है। उसकी और देखो मत- ये देखने के लिए नहीं उड़ान के लिए है।' 

उसका डिजाईन हमारी उम्मीद से ज्यादा अच्छा था। लेकिन में सख्त मायुस हुआ जब आपसी कंट्रोवर्सेस की बिनाह पर सारा प्रोजेक्ट हटा दिया गया और बंद कर दिया गया। 

पक्षी शास्त्री कहा करते थे- 'सत्य का अनुसरण करते रहो, सत्य आपको मुक्त कर सकती है।


जैसे की बाइबल में कहा है - ' सवाल पूछो और आपको उत्तर मिलेगा। '


यह तुरंत नहीं होगा, लेकिन उसके बाद भी यह होगा। प्रो. एम.जी.के. मेनन, टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रीसर्च के डायरेक्टर एक रोज अचानक ही हमारी जाँच-परताल को आ पहुंचे। नंदी का जिक्र निकला और मुझसे पुछताज करते हुए उन्होंने ख्वाइश जाहिर की एक १० मिनट की उड़ान के लिए। उसके एक हफ्ता बाद की बात है। मुझे INCOSPAR ( ध इंडियन कमिटी ऑफ़ स्पेस रीसर्च ) से बुलावा आ गया राकेट इंजीनियर की पोस्ट के लिए इंटरव्यू देने। मेरा इंटरव्यू लेने वाले डॉ. विक्रम साराभाई और प्रो. एम. जी. के. मेनन के अलावा मि. शराफ थे जो उस वख्त एटॉमिक एनर्जी कमिसन के डेप्यूटी सेक्रेटरी के होदे पर थे। डॉ. साराभाई की गर्मजोशी ने पहली ही मुलाकात में मेरा दिल मोह लिया। अगले ही दिन मुझे खबर मिली की मैं चुन लिया गया। मुझे INCOSPAR में राकेट इंजीनियर की हैसियत से शामिल कर लिया गया। 







डॉ. विक्रम साराभाई
जन्म: १२अगस्त, १९१९
निधन: ३० दिसम्बर, १९७१

डॉ. विक्रम साराभाई भारत के प्रमुख भौतिकशास्त्री थे। इन्होंने ८६ वैज्ञानिक शोध पत्र लिखे एवं ४० संस्थान खोले। इनको विज्ञान एवं अभियांत्रिकी के क्षेत्र में सन १९६६ में भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। उन्होंने अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में भारत को आंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर स्थान दिलाया। इसके साथ उन्होंने वस्त्र, आण्विक ऊर्जा , इलेक्ट्रॉनिक्स और अन्य क्षेत्रों में भी योगदान दिया।



सन १९६२ के  तरहीना हिस्से में कहीं INCOSPAR ने थुम्बा में एक्वेटरियल रॉकेट लॉन्चिंग स्टेशन बनाने का फैसला किया। थुम्बा केरल में त्रिवेंद्रम से परे एक दूर तराज के उगते से गाँव का नाम है। हिंदुस्तान में ये मॉडर्न राकेट स्पेस रीसर्च की एक दबी सी एक तदार थी, हल्की सी शुरुआत थी। उसके फ़ौरन बाद ही मुझे ६ माह के लिए अमरीका भेज दिया गया NASA में राकेट लॉन्चिंग की ट्रेनिंग के लिए। जाने से पहले में थोड़ा सा वख्त निकालकर रामेश्वरम गया। मेरे पिताजी मेरी इस कामयाबी के लिए बहुत खुश हुए और मुझे उसी मस्जिद में ले जाकर शुक्राने की नमाज अदा की।


मैं मानता हूँ की प्रार्थना का एक मुख्य कार्य सर्जनात्मक विचारों को उत्तेजना देना है।दिमाग में सारे विचार सफल जीवन के लिए जरूरी है। विचार चेतना में हाजिर होते है, और जब मुक्त होते है तब आकार लेते है, जो सफल घटना की ओर ले जाते है। ईश्वर, हमारा सर्जक, हमारे दिमाग और व्यक्तित्व में महान संभवित शक्ति और क्षमता को संग्रह करता है। प्रार्थना हमें इन शक्तियों को विकास करने में मदद करती है।


अहमद जलालुद्दीन और शम्शुद्दीन मुझे मिलने के लिए मुंबई एयरपोर्ट तक आये। वह उनका बड़े शहर में पहला अनुभव था। बिलकुल उसी तरह जिस तरह मेरा न्यू यॉर्क जैसे बड़े शहर में पहला अनुभव था। जलालुद्दीन और समशुद्दीन आत्म-निर्भर, हकरात्मक, आशावादी व्यक्ति थे जो सफलता के विश्वास के साथ काम का दायित्व लेते थे। वो यह दोनों व्यसक्ति ही थे जिनकी वजह से में अपने भीतर सर्जनात्मक शक्ति को अंकित कर पाया। मेरी भावुकता छिप न सकी और मैने अपनी आँखों में आंसुओ का धूंध पाया। 'आझाद, हम तुम्हे हमेशा से प्यार करते है और हमें तुम पर भरोसा है। हमें तुम पर नाज़ है। ' उनके मेरी काबिलियत पर इस विस्वास की पवित्रता और तीव्रता ने मेरी गढ़ता को तोड़ दिया और मेरी आँखों से आँसु बहने लगे।


NASA लिंगली रीसर्च सेंटर , वर्जीनिया में मैंने अपने काम की शुरुआत की। बाद में गोदार्द स्पेस फ्लाई सेंटर, मेरीलैंड चला गया। मई अपना इम्प्रैशन अमेरिकन्स के बारे में बेंजामिल फ्रैंकलिन के इस चुगले से बयान कर सकता हूँ।


'जिन बातों से तकलीफ होती है, उनसे तालीम भी मिलती है।'

हिंदुस्तानी आर्गेनाईजेशन में, यहाँ की आर्गेनाईजेशन में एक बड़ी मुश्किल है। जो ऊपर है वो बड़े महरूर है। अपने से छोटो की, जूनियर्स और सबऑर्डिनेट्स की राय लेना अपनी घातक समझते है। कोई शख्स अपनी खूबी दिखा नहीं सकता अगर आप उसे  शर्मिंदा ही करते रहे। उसूल और पाबंदी, पाबंदी और सख्ती , सख्ती और जुर्म की बीच की लाइन बड़ी महीन है, बारीक है। उसकी पहचान जरूरी है। दुर्भाग्य से हमारे देश में हीरो और ज़ीरो के बीच की लाइन प्रमुखता से खिंची गई है।

में जैसे ही NASA से लौटा फ़ौरन बाद हिंदुस्तान का पहला राकेट लॉन्च हुआ २१ नवम्बर , १९६३ के दिन। वो साउंडिंग रॉकेट था नाइकीअपाची। और वो NASA में बना था। 





नाइकी अपाची
नाइकीअपाची दो स्टेज का साउंडिंग राकेट था। जिसे NASA ने ऊपरी वातावरण में औजार भेजने के हेतु से इस्तमाल किया था। वह सबसे कम खर्च का और कई मुकाम से प्रज्ज्वलित करने की क्षमता रखने होने के कारण प्रसिद्ध था।


नाइकी अपाची की कामयाबी के बाद प्रो. साराभाई ने अपनी आरजू अपने ख्वाब का इजहार किया। एक इंडियन सेटेलाइट लॉन्च व्हीकल ISLV का सपना। हिंदुस्तानी राकेट का ख्वाब २० वी सदी में एक तरह से १८ वी सदी का ख्वाब कहला सकता है। जो टीपु सुलतान ने देखा था। टीपु सुल्तान की फ़ौज में २७ ब्रिगेडियर थे जो खुसुन कहलाते थे। और हर एक ब्रिगेड में एक राकेट मेन था जो साथ रहा करता था जो जौर्क कहलाता था। जब टीपु सुलतान मारा गया तो अंग्रेजो ने ७०० रॉकेट्स और ९०० रॉकेट्स के सबसिस्टम बरामत किये। १७९९ में तिरुकर्णावती की जंग के बाद वो रॉकेट्स विलियम कोन्ग्रीव ने इंग्लैंड भिजवा दिए जाँच-परताल के लिए। जिसे आज की साइंस जबान में रिवर्स इंजीनियरिंग कहते है। टीपु सुलतान की मौत के बाद उस ख्वाब की भी मौत हो गई। कम से कम १५० साल के लिए। 



टीपु सुलतान (उम्र - ४८ साल)
जन्म : २० नवम्बर, १७५०
निधन : 4 मई, १७९९

टीपु सुलतान भारत के मैसूर राज्य के शाशक थे। उन्हें मैसूर का बाघ के नाम से भी जाना जाता है। टीपु एक परिश्रमी शासक , मौलिक सुधारक और महान योद्धा थे। वह अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। टीपु सुलतान ने युद्ध के दौरान छोटे-छोटे राकेट का इस्तेमाल किया था। अंग्रेजो के खिलाफ पोल्लीलोर की लड़ाई में जब उन्होंने राकेट का इस्तेमाल किया तो वह हैरान रह गए। दुनिया में अपनी तरह का वह पहला प्रयोग था। इसीलिए उन्हें दुनिया का पहला मिसाइल मैन भी कहा जाता है।


पंडित जवाहरलाल नेहरू की बदौलत वो रॉकेट्री का ख्वाब एक बार फिर हिंदुस्तान में जिन्दा हुआ। प्रो. साराभाईने उस ख्वाब को हक़ीक़त बनाने की जिम्मेवारी अपने सर ले ली। बहोत से कमबीन नजर लोगो को एतराज़ था इस बात पर की इस मुल्क में जहाँ लोगो को दो वख्त की रोटी नसीब नहीं होती वहाँ इन स्पेस उड़ानों को क्यों दर्जे दिए जा रहे है। लेकिन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू और प्रो. साराभाई के नजरिए में किसी किसम का मुआवजा नहीं था। उनके नजरिए बिलकुल साफ थे की अगर दुनिया के मुल्कों में और दुनिया के मसल्लो में कोई हिस्सा लेना है, शरकत करनी है, हिंदुस्तान को कोई हैसियत हासिल करनी है तो साइंस और टेक्नोलॉजी की तरक्की और मुख्तारी जरूरी है। और उनका मगशद ताकत का मुझाहिरा हरगिज़ नहीं था। 


पण्डित जवाहरलाल नेहरू
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री
जन्म : १४ नवम्बर, १८८९
निधन : २७ मई, १९६४

नहेरुजी भारत की स्वतंत्रता के पूर्व और पश्चात की भारतीय राजनीति में केंद्रीय व्यक्ति थे। वे भारतीय स्वतंत्रता के आंदोलन के सर्वोच्च नेता के रूप में उभरे और उन्होंने १९४७ में भारत के एक स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में स्थापना से लेकर १९६४ तक अपने निधन तक , भारत का शाशन किया। वे आधुनिक भारतीय राष्ट्र-राज्य- एक समप्रभु , समाजवादी , धर्म निरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणतंत्र के वास्तुकार माने जाते थे। कश्मीरी पण्डित समुदाय के साथ उनके मूल की वजह से वे पण्डित नेहरू भी बुलाये जाते थे, बल्कि भारतीय बच्चे उन्हें चाचा नेहरू के रूप में जानते है। उनके जन्मदिन को भारत में बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है।
सहज  पके सो मीठा होए। थुम्बा में दो राकेट सहज पके मगर कामयाब हुए एक रोहिणी दूसरा मेनका। भारतीय विस्फोटकों को राकेट के लॉन्च के लिए अब फ्रेंच राकेट की जरूरत नहीं थी।  

अगला साल लगा ही था कि प्रो. साराभाई ने मुझे दिल्ली बुला भेजा। अब तक मै प्रो. साराभाई के काम करने के तरीके से परिचित हो चूका था। वे उत्साह और उम्मीद से भरे हुए रहते थे। दिमाग के कुछ अवस्था पे , उनके प्रेरणास्त्रोत तुरंत तैयार रहते थे। दिल्ही पहुचने के बाद मैंने प्रो. साराभाई के सेक्रेटरी से अपने अपॉइंटमेंट के बारे मे पूछा तो उन्होंने रात के ३:३० को उनसे मिलने को कहा। दिल्ही मेरे जैसे शख्शियत के लिए दक्षिण भारत के गर्म और मंद वातावरण से ये जगह थोड़ी सी अलग और अंजान थी। अपना रात का भोजन लेने के बाद मैंने होटल के लॉन्ज में प्रतीक्षा करने का सोचा। 


मैं हमेशा से ही आध्यात्मिक व्यक्ति रहा हूँ, जिससे ईश्वर की सांझेदारी में काम करते करते भावनाओ को बनाये रखा है। मैं जानता था कि मुझे बेहतर काम करने के लिए जो क्षमता मेरे पास है उससे ज्यादा क्षमता की आवश्यकता है और इसीलिए मुझे मदद की जरुरत थी जो मुझे सिर्फ खुदा ही दे सकता है। मैंने अपनी क्षमता का सही अंदाज बना लिया था, फिर वह ५० प्रतिशत तक उसे बढ़ाया और अपने आप को खुदा के हाथों सौप दिया। इस सांझेदारी में, मेने हमेशा उन सारी शक्तियों को प्राप्त किया जिसकी मुझे जरूरत थी, और असल में  वास्तव में उसे अपने भीतर बहता हुआ अनुभव किया था। आज, मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ की ईश्वर का राज्य इस ऊर्जा के रूप में आपके भीतर है, जो आपके ख्वाब को प्राप्त करने में और इसे परखने में मदद करता है। 


इस आंतरिक शक्ति की प्रतिक्रिया का अनुभव करने के बहोत से अलग अलग प्रकार और स्तर है। कई बार जब हम तैयार होते है, उसके साथ विनीत संपर्क हमें अंतर्दृष्टि और बुद्धिमत्ता से भर देता है। यह किसी अन्य व्यक्ति के साथ संघर्ष से, शब्द से, प्रश्न से, संकेत या रूप में भी आ सकती है। कई बार यह किताब , बातचीत , कई विशिष्ट शब्द, कविता की कोई पंक्ति या किसी चित्र की झाँखी से भी आ सकती है। थोड़ी सी भी चेतावनी के बिना, आपके जीवन में कुछ नया टूटता है और रहस्यमय निर्णय आप लेते है, वह निर्णय जिसे शुरू करने के साथ संपूर्ण अचैतन्य है। 


मैने सूंदर लॉन्ज के आसपास देखा। कोई पास के सोफे पर एक किताब छोड़ गया था। जैसे उस शीतल रात के कुछ घण्टे को गर्म विचार से भरने के लिए हो, मैंने किताब उठाई और मन बहलाने लगा। मेने किताब के कुछ पन्ने पलटे, जिसके बारे में मुझे आज याद नहीं। 


वो बिजनेसमैन से संबंद्धित कोई पॉप्यूलर किताब थी। मैं उसे पढ़ नहीं रहा था, सिर्फ पैरेग्राफ पे नजर दाल रहा था और पन्ने पलट रहा था। अचानक मेरी नजर किताब में एक अंश पर पड़ी। वो ज्योर्ज बेर्नार्ड शो का कोटेशन था। उस क्वॉट का भावार्थ सारे उचित परुष अपने आप को दुनिया के अनुकूल बनाने का था। सिर्फ कुछ अनुचित लोग दुनिया को अपने जैसे बनने पर दृढ रहते है। दुनिया का सारा विकास इन अनुचित पुरुष और उनके परिवर्तनात्मक और अक्सर सम्प्रदायवादी क्रिया पर निर्भर है। 


मैंने बेर्नार्ड शॉ अंश से किताब को पढ़ना शुरू किया। लेखक इंडस्ट्री और बिज़नेस से सम्बंधित मिथ (काल्पनिक कथा)  की संकल्पना का वर्णन कर रहे थे। लेखक के मतानुसार एक प्रोजेक्ट मैनेजर के लिए अचोक्कसता और अस्पष्टता के साथ जीना आवश्यक है। उन्होंने महसूस किया था कि ' इकोनॉमिक्स सफलता को पकडे रखने की चाबी है' यह एक मिथ है। 


रात के १ बजे से दो घण्टे तक होटल लॉबी में प्रतीक्षा करते रहना निश्चित रूप से उचित प्रस्ताव नहीं था, न ही मेरे लिए और न ही प्रो. साराभाई के लिए। पर फिर भी प्रो. साराभाई ने हमेशा अपने चरित्र में अपरंपरागत में एक मजबूत घटक प्रदर्शित किया। वे एक कर्मचारी, अतिरिक्त कार्य के बावजूद देश में सफलतापूर्वक स्पेस रीसर्च चला रहे थे। 


तुरंत ही मैंने एक दूसरे शख्स को आते हुए देखा और वो मेरे सामने के सोफे पर बैठे। वो एक अच्छे घर का , इंटेलिजेंट लुक और शिष्ट व्यक्ति थे। न की मेरी तरह -जो हमेशा बेतरतीब कपड़ो में रहता- इस शख्स ने शिष्ट कपडे पहने हुए थे, बेवख्त के बावजूद वो जागृत और फुर्तीला था। 


उसके पास अलग ही आकर्षण शक्ति थी जिसने मेरे नवीनता के विचारों की ट्रेन को पटरी से उतार दिया था और इससे पहले की मैं किताब तक वापस जाता, मुझे सूचित किया गया कि प्रो. साराभाई मुझसे मिलने के लिए तैयार है। मेने किताब को सोफे पे रख दी जहाँ से मैने उसे उठाई थी । मेरे सामने के शख्स को भी अंदर जाने के लिए कहा गया यह देख के मैं आश्चर्यचकित रह गया। वो कौन थे? इस सवाल के जवाब से मैं ज्यादा दूर नहीं था। इससे पहले की हम बैठे, प्रो. साराभाई ने हम दोनों को एक दूसरे का परिचय करवाया। वो एयर हेडक्वार्टर से ग्रुप कप्तान वी. एस. नारायणन थे। 
 प्रो. साराभाई ने RATO (रॉकेट आसिस्टंट टेक ऑफ़ सिस्टम ) तैयार करने का अपना इरादा जाहिर किया। एक मिलट्री एयर क्राफ्ट जो राकेट की मदद से उड़ाया जा सके। बड़ी छोटी सी जगह में। शाम तक यह खबर भी आम हो गई की हिंदुस्तान खूद का मिलट्री एयर क्राफ्ट तैयार कर रहा है और में उस प्रोजेक्ट का मुख्तार हु, जिम्मेवार हुँ। मै कई तरह के जज्बात से भर गया। खुश भी था शुक्रगुजार भी। और एक एहसास हुआ तकमील का। फुलफिलमेंट का। १९ वी सदी के शायर की यह लाइन बहुत याद आई-



हर दिन के लिए तैयार रहो,
हर दिन को एक तरह ही मिलो, 
जब आप निहाई हो, बर्दाश्त करो,
जब आप हथोड़े हो, वार करो।

RATO पे काम करते हुए दो अहम् वाक्यात हुए। पहला तो यह था कि अपने देश में पहली बार स्पेस रीसर्च का १० साला प्रोग्राम तैयार हुआ। जिसके ऑथर थे प्रो. साराभाई। मेरे लिए वो एक एसी रूमानी घोषणा थी जैसे इस स्पेस से इश्क़ करनेवाली कोई शायर की रूमानी नज्म हो। और दूसरा वाक्यात मिनिस्ट्री ऑफ डिफेन्स से मिसाइल पैनल का तैयार होना। नारायणन और में हम दोनों इस पैनल के मेंबर थे। उस वख्त भविष्य की आनेवाली SLV सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल का नाक नक्शा भी तैयार हो चूका था। प्रो. साराभाई अपने दहरीना ख्वाब को ताबीर देने के लिए कुछ और साथियो का चुनाव कर चुके थे । में खुद को खुशकिस्मत समझता हूँ की मुझे उस प्रोजेक्ट का लीडर चुना गया। उस पर प्रो. साराभाई ने एक और जिम्मेवारी भी सौंपी की लॉन्च की चौथी स्टेज मैं ही डिजाईन करू। 

यह आदत थी मेरी की हर मिसाइल पैनल की मीटिंग के बाद मैं जाकर प्रो. साराभाई को पूरी रिपोर्ट देता था। दिल्ही मैं ऐसी ही एक मीटिंग के बाद २३ दिसंबर, १९७१ को में त्रिवेंद्रम लौट रहा था और उस दिन प्रो. साराभाई थुम्बा मे SLV का मुआयना करने गए हुए थे। दिल्ही एयरपोर्ट के लॉन्च से मैंने उन्हें फोन किया पैनल मीटिंग की रिपोर्ट बताई। प्रो. साराभाई ने मुझे कहा कि में त्रिवेंद्रम एयरपोर्ट पर उनका इंतज़ार करू। 

में जब त्रिवेंद्रम पंहुचा तो फ़िज़ा में एक मातम छाया हुआ था। मुझे खबर दी गई की प्रो. साराभाई अब नहीं रहे। चंद घण्टे पहले दिल का दौरा पड़ने से उनका इंतेक़ाल हो गया। में थर्राके रह गया। चंद घण्टे पहले ही तो मैने उनसे बात की थी। मेरे लिए वो बहोत बड़ा सदमा था। प्रो. साराभाई मेरी नजर में इंडियन साइंस के राष्ट्रपिता है, जैसे राष्ट्र के पिता महात्मा गांधी है। उन्होंने अपनी टीम से रहनुमा पैदा किए और खुद अपने अम्ल से उनकी मिशाल साबित हुए। 

कुछ अरसा MGK मेनन ने स्पेस रीसर्च का काम सम्हाला। फिर आख़िरकार प्रो. सतीश धवन को इंडियन स्पेस रीसर्च आर्गेनाईजेशन  ISRO की जिम्मेवारी सौप दी गई। थुम्बा का पुरा काम्प्लेक्स एक बड़े पैमाने पर स्पेस सेंटर बना दिया गया और विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर VSSC का नाम दिया गया। जिसने वो सेंटर कायम किया था उसी के नाम से उस जगह की श्रद्धांजलि पेश की गई। मशहूर मेट्रोलॉजिस्ट डॉ. ब्रह्मप्रकाश VSSC के पहले डायरेक्टर मुकरर हुए। 


प्रो. सतीष धवन

प्रो. सतीष धवन भारतीय ऐरोस्पेस इंजीनियर थे। उन्हें भारतीय एक्सपेरिमेंटल फ्लड डायनामिक्स रीसर्च के पिता से भी जाना जाता है। सतीष धवन का जन्म जम्मु कश्मीर के श्रीनगर में हुआ था। उन्हे १९२१ में पद्मभूषण, 1981 में पद्मविभूषण,१९९९ में इंदिरा गांधी एवार्ड से नवाजा गया था। 

८ अक्टूबर , १९७२ को उत्तर प्रदेश के बरैली एयरफोर्स स्टेशन पे RATO सिस्टम का सफलतापूर्वक टेस्ट किया गया, जब हाई पर्फोमेंस सुखोई-16 जेट एयरक्राफ्ट १२०० मीटर के छोटे से दौड़ के बाद हवाई हो गया। हमने टेस्ट में ६६ वा RATO मोटर का इस्तेमाल किया। प्रदर्शन एयर मार्शल शिवदेव सिंह और डॉ. बी. डी. नागचौधरी ने देखा, उसके बाद डिफेन्स मिनिस्टर ने जो वैज्ञानिक सलाहकार थे। इस असर ने करीबन ४ करोड़ रुपये फॉरेन एक्सचेंज से बचाया। इस इंडस्ट्रियल वैज्ञानिक दृष्टि ने आखिर में फल दिया। 

भारत में स्पेस रीसर्च की जिम्मेदारी लेने और INCOSPAR के चेयरमैन मैन बनने से पहले डॉ. विक्रम साराभाई ने कई सफल इंडस्ट्रियल एंटरप्राइज की स्थापना की। वे इस बात से अवगत थे वैज्ञानिक संसोधन इंडस्ट्री से दूर रहकर नहीं हो सकते। प्रो. साराभाई ने साराभाई केमिकल्स, साराभाई ग्लास,, साराभाई गाईगी लिमिटेड, साराभाई मर्क लिमिटेड और साराभाई इंजीनियरिंग ग्रुप बनाये थे। उनके  स्वस्तिक ऑइल मिल्स ने तैली बीज में से ऑइल के निकास, डिटर्जेंट की बनावट और कॉस्मटिक्स की बनावट में अग्रणी काम किया था। उन्होंने स्टैण्डर्ड फार्मास्युटिकल लिमिटेड बड़ी मात्रा में पेनिसिलिन तैयार करने के लिए सक्षम किया, जो उस वख्त विदेश से एस्ट्रोनॉमिकल कॉस्ट से आयात होती थी। अब RATO का स्वदेशीकरण के नए मिशन के साथ देश के मिलट्री हार्डवेयर और फॉरेन एक्सचेंज से करोडो रुपयों के बचाव ने देश की आजादी को नई दिशा दे दी। प्रयासों के खर्च को जोड़कर हमने २५ लाख से भी कम रूपए पुरे प्रोजेक्ट में खर्च किये। भारतीय RATO ने एक एक करके १७,००० रूपए बनाए और उसे बदलकर इम्पोर्टेड RATO बनाया, जिसका खर्च ३३,००० हुआ। 

कोई भी शख्स अपनी जिम्मेवारी में तभी कामयाब हो सकता है अगर वो बारसुख हो, मोतबर हो और अपने फैसलों के लिए उसे सही हक़ तक आज़ादी हो। शायद निजी जिंदगी में भी तसल्ली का यही एक रास्ता हो। तभी वो तसखीन और ख़ुशी का एहसास हो सकती है। औसादी आज़ादी हासिल करने के लिए में दो रास्ते तसखीन कर सकता था। जो मैंने किए। 

पहला तो यह की अपनी तालीम और तरबियत को बढ़ावा दो। इल्म बड़ा कारामत हथियार है। बहोत काम आता है। इल्म जितना ज्यादा होगा उतनी ज्यादा आजादी के हकदार होंगे। इल्म वो पूंजी है जो कोई छीन नहीं सकता। इल्म की रहनुमाई तभी मुमकिन है अगर आपकी जानकारी मुक्कम्मल हो, अप टू डेट हो। कामयाब रहनुमा बनने के लिए जरूरी है कि दिन का काम जब ख़त्म हो आप दूसरे काम का इजाजा ले। अगले दिन की तैयारी करे।

दूसरा तरीका यह है कि अपने काम को अपना फक्र समजे , गर्व समजे। और जरूरी है कि अपने अंदर की शक्ति की सही जानकारी हो। जो करो उस पर यकीन रखो , या जिस पर यकीन हो वही करो। वरना दुसरो के ही मान का शिकार बनते रहोगे। 

SLV प्रोजेक्ट के पहले तीन सालो में साइंस के बहोत से नए इसरान खुले और आहिस्ता आहिस्ता साइंस और टेक्नोलॉजी का फर्क समज आने लगा। रीसर्च और अमल का फासला पता चलने लगा।

किसी भी इजात में गलतियां होना लाजमी है। लेकिन हर गलती कामयाबी की तरफ एक और कदम उठाती है। एक और सीडी बन जाती है। 

किसी भी तकलीफ की तरह SLV-3 की तकनीक भी कई दर्दनाक लम्हो से गुज़री। एक रोज जब मैं और मेरे तमाम साथी अपने कामो में पूरी तरह दुबे हुए थे तब मेरे घर से एक मौत की तलाह पहुंची। मेरे दोस्त और हमदर्द, मेरे बहनोई जलालुद्दीन का इंतकाल हो गया था। मेरी आँखों में अँधेरा छा गया। थोड़ी देर बाद जब अपने चोगरते का एहसास हुआ तो महसूस किया जैसे मेरी हस्ती का एक हिस्सा मर गया था। रात की रात बसों में सफर करता हुआ अगली सुबह मैं रामेश्वरम पहुँचा । जोहरा को क्या तसल्ली देता और क्या सबर देता अपनी भांजी मेहबूबा को जो रो-रो कर हलकान हो रही थी। मेरी आँखों के सोते पहले ही सुख चुके थे। थुम्बा लौट कर बहुत दिनों तक सारा कामकाज सारी मशरुकियात बैमानी लगती थी। प्रो. धवन देर देर तक हौसला देते थे, कहते - जैसे SLV पर काम आगे बढ़ेगा मुझे सब्र महसूस होगा और बेमायुसी कम होते होते गुजर जाएगी। 

१९७६ में मेरे पिताजी १०२ साल की  उम्र में वही रामेश्वरम में इंतकाल फरमा गए। १५ पोते पोतियां छोड़ के गए थे, और एक परपोता भी। दुनिया वी तौर पर वो एक सिर्फ और बुजुर्ग की मौत थी। कोई बड़ा मातम नहीं हुआ। झण्डा नहीं उतरा गया। न अखबारों में सेआहिसे दिए। न सहजातदान थे वो न विद्वान कोई। न कोई बड़े सर्मायेदान थे। एक सीधे सादे इंसान थे। फरिश्ता से। और हर उस बात की वजह थे जो दानाई और परसाई की राह दिखाती है। 

मैं बहोत देर तक अपनी माँ के पास बैठा रहा। चुपचाप और जब उठा थुम्बा लौटने के लिए तो उसने रुंधे गले से दुआए दी मुझे। SLV-3 अपोजिट राकेट जो फ्रांस से उड़ाए जाने वाली थी अचानक कुछ मुश्किलों का शिकार हो गई। मुझे फ़ौरन फ्रांस जाना पड़ा। मैं रवाना होने ही वाला था कि मेरी माँ की मौत की खबर पहुँची। एक के बाद एक तीन मौते हो गई मेरे घर में। उस वख्त मुझे अपने काम में पूरे ध्यान की जरूरत थी। १००वी सदी की लगन से कम करने की ख्वाइश किसी और लगन की गुंजाईश नहीं छोड़ती। 

१९७९ में फ्लाइट वर्जन के दूसरे जटिल स्टेज के स्टेटिक वर्जन और मूल्यांकन के लिए ६ सदस्यों की टीम बनाई गई। टीम T15 (टेस्ट के १५ मिनट पहले ) के काउंट डाउन पर थी। १२ में से एक वाल्व जांच के दौरान कोई प्ररिक्रिया नहीं बता रहा था। टीम में फैली चिंता ने कसौटी जाँच की समस्या को देखने की ओर ले गई।  अचानक ऑक्सिडिज़र टैंक रेड फ्यूमिंग नाइट्रिक एसिड (RFNA) से भर गया विस्फोट हुआ। और टीम के सारे सदस्य एसिड जलन से गंभीर रूप से घायल हुए। उन घायलों को सहते हुए देखना बहुत ही दर्दनाक अनुभव था। कुरूप और मैं मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल की तरफ भागे और अपने साथियों को एडमिट कराने के लिए मदद मांगी। और उस वख्त अस्पताल में ६ बेड नहीं थे। 

शिवरामकृष्णन नायर उन ६ घायल सदस्यों में से एक थे। वो बहुत गंभीर पीड़ा में था।में उसके बेड के पास ही रात भर जागता रहा। करीब सुबह के ३ बजे उसे होश आया। उसने उनके पहले शब्द में हुई खामी के लिए दिलगिरी व्यक्त की और मुझे विश्वास दिलाया कि वो एक्सीडेंट का दौरान हुई खामी को ठीक कर देगा। इस गंभीर पीड़ा के बीच भी उसकी ईमानदारी और उसकी आशा को देखकर, मैं भीतर से प्रभावित हुआ। 

मुक्कम्मल नीति और पूरी लगन से SLV-3 का ख्वाब १९७९ के दरमियान जाकर पूरा हुआ। हमने SLV-3 के प्रवास का दिन १० अगस्त, १९७९ तय किया था। २३ मीटर लंबा ४ स्टेजिस का यह राकेट १७ टन का वजन लेकर ७ बजकर ५८ मिनट पर बड़ी नजाकतसे उड़ान की और रवाना हुआ। पहली स्टेज हर तरह से पुख्ता निकली और बड़े आराम से रॉकेट दूसरे स्टेज में दाखिल हो गया। हम सब दंमुग्ध रह गए, साँस रोके बैठे थे। हमारे बर्षो का ख्वाब आसमान की तरफ सफर कर रहा था। अचानक हमारे ख्वाब में दरार आई, हमारा सुकून टुटा हमारी ख़ामोशी टूटी। दूसरी स्टेज काबू से बहार होने लगी थी। ३१७ सेकंड के बाद प्रवास टूट गई। मेरी मेहनत और उम्मीद चौथी स्टेज को साथ लेकर तमाम मलबा श्रीहरिकोटा से ५६० किमी दूर समंदर में जाकर गिरा।इस हादसे से हम सबको सख्त सदमा पहुंचा। मैं गम और गुस्से से भर गया। निचौड़ गया बिलकुल। जिस्मानी तौर पर भी और जज्बाती तौर पर भी। में सीधा अपने कमरे में गया और बिस्तर में धस गया। मैंने अपने कंधे पे दिलासे का हाथ महसूस किया तो आँख खोली। दोपहर ढल चुकी थी। डॉ. ब्रह्मप्रकाश मेरे सराहने बैठे थे। उनकी इस हमदर्दी ने छू लिया मुझे। मैं उदास था, मायुस था लेकिन अकेला नहीं ।


SLV-3 का निरीक्षण करते हुए डॉ. ब्रह्मप्रकाश



SLV-3 टीम के सदस्य

११ अगस्त, १९७९ के दिन पोस्ट फ्लाइट की असफलता के वर्णन के लिए मीटिंग बुलाई गई जिसमें ७० भी ज्यादा वैज्ञानिक सामिल थे।तकनीकी  असफलता का मूल्यांकन का वर्णन ख़त्म हुआ। बाद में पोस्ट-फ्लाइट विश्लेषण समेलन में एस. के. अथिथान ने असफलता के कारण नोट किए। यह साबित हुआ की दुर्घटना की वजह दूसरे चरण की असफलता है। दूसरे चरण के उड़ान के दौरान कोई कंट्रोल फाॅर्स उपलब्ध नहीं था जिसकी वजह से व्हिकल ऐरोडीनामिकली अस्थिर हुआ और उसने उसकी उचाई और वेग गुमा दिए। 

फिर आगे दूसरे चरण की असफलता का गहराई से विश्लेषण किया गया तो यह सामने आया की ऑक्सिडिज़र में ईंधन के लिए भरे गए रेड फ्यूमिंग नाइट्रिक एसिड का अच्छी मात्रा में निकल जाने की वजह से दूसरा चरण असफल हुआ। तलाश को प्रो. धवन को टॉप ISRO साइंटिस्ट के द्वारा प्रस्तुत की गई और उसका स्वीकार भी किया। हर शक्श तकनिकी जाँच और बहस के बाद संतुष्ट हो चूका था। लेकिन मुझे इत्मीनान न आया। और मुशलशल बैचैन रहा। में बेसाफतम खड़ा हो गया और इतराक किया प्रो. धवन के सामने , " सर, मेरे साथियो को नाकामयाबी वजह तरेआफ्त हो जाने से इत्मीनान हो गया लेकिन मैं उसे काफी नहीं समझता। इस मिशन के डायरेक्टर की हैसियत से इस गलती को भी  मैं अपनी जिम्मेवारी समझता हूँ। SLV-3 की नाकामयाबी की जिम्मेवारी मेरी है। 

साइंस का काम कमाल दर्जा उत्साह भी देता है, ख़ुशी भी और उतनी ही गहरी मायूसी भी। इस तरह के वाख्यात सोच सोचकर दिल को थारस देता रहा 

ये ख्याल की इंसान चाँद पर पहुँच सकता है सबसे पहले रुसी साइंटिस्ट ने सोचा था। उसे हकीकत बनने में ४० साल गुजर गए जब अमेरिका ने उसे पूरा किया। प्रो. चंद्रशेखर ने चंद्रशेखर लिमिट का अविष्कार किया था १९२९ मेंजब कैंब्रिज में पढ़ रहे थे। लेकिन ५० साल बाद उन्हें यसि डिस्कवरी पर नोबेल प्राइज मिला। वॉर्न बोर्न अपनी सेटल लौंच व्हिकल से आदमी को चाँद पर उतरने से पहले कितनी सारी नाकामयाबी से गुजरे होंगे।? 

'पहाड़ की चोटी पर उतरने से पहाड़ पर चढ़ने का तजुर्बा नहीं  मिलता। जिंदगी पहाड़ की चढ़ानो पर मिलती है, चोटी पर नहीं। चढ़ानो पर ही तजुर्बे मिलते है और जिंदगी मंचती है। और टेक्नोलॉजी तरक्की करती है। चोटी पर चढ़ने की कोशिशों में चढ़ानो का इल्म हासिल होता है। मैं एक एक कदम चलता रहा चोटी की तरफ। '


SLV-3 की उड़ान से ३० घण्टा पहले १७ जुलाई, १९८० के दिन अखबारों की सुर्खियां तरह तरह के राय और अंदाजों से भरी हुई थी। ज्यादातर रिपोर्टर्स ने पहली SLV की उड़ान याद दिलाई थी की किस तरह वो राकेट फ़ैल हो गया था और उसका मलबा समंदर में जाकर गिरा था। कुछ लोगो ने तो देश की दूसरी खामियों का जिक्र करते हुए भी उसे SLV से जोड़ दिया था। मैं जानता था कि अगले दिन का नतीजा हमारे भविष्य के स्पेस प्रोग्राम का फैसला करने वाला है। मुख़्तसर ये की सारी कोम की नज़रे हम पर गड़ी हुई थी।


लॉन्च पेड़ पर SLV-3 


१८ जुलाई, १९८० सुबह ८:०३ समय पर हिंदुस्तान का पहला सैटेलाइट लॉन्च व्हिकल उडा। मैंने रोहिणी सैटेलाइट का तमाम डेटा कंप्यूटर पर जाँचा। अगले दो मिनट के अंदर अंदर रोहिणी अंतरिक्ष में था। उस तमाम शोरोहोल के बीच में मैंने अपनी जिंदगी के सबसे अहम अल्फाज  अदा किए।

"मैं मिशन डायरेक्टर बोल रहा हूँ। एक जरूरी खबर सुनने के लिए तैयार रहो। चौथी स्टेज कामयाबी के साथ रोहिणी सैटेलाइट को लेकर अंतरिक्ष में दाखिल कर रही है। "

मैं ब्लॉक से बहार आया तो मेरे साथियो ने मुझे कंधो पर उठा लिया और नारे लगाते हुए जुलुस निकाला। सारे कोम में एक ख़ुशी की लहर दौड़ गई। हिंदुस्तान उन चंद कोमो में शामिल हो गया था जिनके पास सैटेलाइट लॉन्च काबिलियत थी। हमारे कोम का एक ख्वाब पूरा हुआ था और हमारे इतिहास का एक नया पाठ खुला। 


इंदिरा गांधी
जन्म: १९ नवम्बर, १९१७
निधन: ३१ अक्टूबर, १९८४

इंदिरा गांधी भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री थी। जिन्होंने १९६६ से १९७७ और बाद में फिर से १९८० से १९८४ में उनकी हत्या तक उन्होंने देश की सेवा की। उनके पिता जवाहरलाल नेहरू ने उनको प्रियदर्शिनी उपनाम दिया था। 


प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुबारकबाद का तार भेजा और सबसे ज्यादा हिंदुस्तान के साइंसदान खुश थे की यह पूरी कोशिश स्वदेशी थी। हमारी अपनी थी। 


प्रो. सतीश धवन और मैं प्राइम मिनिस्टर इंदिरा गांधी को SLV-3 के रिजल्ट वर्णन करते हुए


मैं कुछ मिलेझूले जज्बात से गुजर रहा था। मैं खुश था कि पिछली दो दहाइयो से जिस कोशिश में था मैं आखिर उसमे कामयाब हुआ। लेकिन उदास था जिन लोगो की बदौलत मैं यहाँ पंहुचा था वो लोग मेरे साथ नहीं थे। मेरे पिताजी, मेरे बहनोई जलालुद्दीन और प्रो. साराभाई। SLV-3 के कामयाबी के महीने भर के अंदर ही प्रो. धवन का फोन आयेक दिन और दिल्ही बुलाया प्रधानमंत्री से मिलने के लिए। मेरी एक छोटी सी उलझन थी कपड़ो को लेकर। हमेशा से बड़े आमियाना से कपडे पहनता हुँ और पाँव में चप्पल या स्लीपर कह लो। प्रधानमंत्री को मिलने जैसा वो लिबास नहीं था। मेरे लिए नहीं। उनके एतरार के लिए। सुना तो प्रो. धवन बोले-

"कपड़ो की फिक्र मत करो, तुमने जो ये शानदार कामयाबी पहन रखी है वो काफी है"

रिपब्लिक डे १९८१ मेरे लिए एक बड़ी खुशखबरी लेकर आया। की मुझे एक पद्मभूषण से नवाजा गया है। मेने अपने कमरे को बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई से भर लिया। शहनाई की गूंज मुझे कही ओर ही ले गई। में रामेश्वरम पहुँच गया। माँ के गले लगा। पिताजी ने मेरे बालों को उंगलियों से सहलाया। और मेरा दोस्त मेरा रफीद जलालुद्दीन मस्जिद गली में जमा हुए लोगो को मेरे इनाम का एलान कर रहा था। मेरी बहन जोहरा ने मीठा बनाया घर में। पक्षी लक्ष्मण शास्त्री ने मेरे माथे पर तिलक लगाया। फादर सोलोमन ने मेरे हाथ में स्लिप देकर दुआ पढ़ी। और प्रो. साराभाई को देखा । उनके चेहरे पर मुसकुराहट थी, फक्र था। जो पौधा वो लगाकर गए थे अब वह पूरा पेड़ बन चूका था।  जिसके फल हिंदुस्तान की आवाम तक पहुच रहे थे। 


डॉ. नीलम संजीव रेड्डी के हाथों से पद्मभूषण का स्वीकार



१ जून, १९८२ मैंने डिफेन्स रीसर्च एंड डेवलोपमेन्ट लेबोरेटरी DRDL की जिम्मेवारी संभाल ली। उस वख्त के डिफेन्स मिनिस्टर श्री आर. वेंकटरमन ने जब मशहूरा किय के बजाय दर्जा ब दर्जा मिसाइल तैयार करने के हमें मुक्कमल अपनी मिसाइल तैयार करने का प्रोग्राम बनाना चाहिए, तो हमें अपने कानों पर यकीन नहीं आया। और देखते देखता वो प्रोजेक्ट एक मुक्कम्मल मिसाइल का प्रोजेक्ट बन गया। जिसके नतीजे आइंदा बड़े दूर तक पहुंचे। 

हर एक प्रोजेक्ट का नाम हिंदुस्तान की खुद मुख्तारी का सुकुन था। सरफेस तो सरफेस मिसाइल का नाम पृथ्वी रखा गया। टेक्निकल कोर व्हीकल को त्रिशूल का नाम दिया गया। सरफेस टु एयर डिफेन्स सिस्टम आकाश कहलाया। एंटी टैंक मिसाइल प्रोजेक्ट को नाग के नाम से पुकारा गया। और मेरे दहरीना ख्वाब RAX यानि रिएंट्री एक्सपेरिमेंट लॉन्च व्हीकल को मैंने अग्नि का नाम दिया। 


पृथ्वी मिसाइल

प्रकार: सरफेस टु सरफेस मिसाइल
उपयोग कर्ता: भारतीय सशस्त्र बल(इंडियन आर्म्ड फोर्स)
निर्माता: डिफेन्स रीसर्च एंड डेवलपमेंट आर्गेनाईDRDO) और भारत डाइनेमिकलिमिटेड(बदल)
प्रस्तुत तारीख: पृथ्वी१ २५ फरवरी,१९८८, पृथ्वी २, २७ जनवरी, १९९६, पृथ्वी 3,२३ जनवरी, २००४
वजन: पृथ्वी १- ४४०० किग्रा, पृथ्वी २- ४६०० किग्रा, पृथ्वी३-५६०० किग्रा
लंबाई: पृथ्वी १- ९ मी, पृथ्वी २,३- ८.५६ मी
व्यास: पृथ्वी १,२- ११० सेमी, पृथ्वी ३- १००सेमी


त्रिशूल मिसाइल
प्रकार: सरफेस टु एयर मिसाइल
उपयोग कर्ता: भारतीय सशस्त्र बल
वजन: १३० किग्रा
लंबाई: ३.१ मी (१०फुट)



आकाश मिसाइल
प्रकार: सरफेस टु एयर मिसाइल सिस्टम
उपयोगकर्ता: भारतीय आर्मी भारतीय एयर फाॅर्स
डिज़ाइनर: DRDO
वजन: ७२० किग्रा
लंबाई:५७८ सेमी
व्यास: ३५ सेमी


नाग मिसाइल
प्रकार: एंटी टैंक मिसाइल
वजन: ४२ किग्रा
लंबाई:१.९० मी
व्यास: १९० mm



अग्नि मिसाइल

मिसाइल टेक्नोलॉजी का हुन्नर दुनिया के कुछ चुने हुए कोमो के पास ही था। वो बड़े ताज्जुब से हमारी तरफ देख रहे थे की हम क्या करने जा  रहे है और कैसे करेंगे। हम एक मीटिंग में बैठे हुए एक मगसद को पूरा करने के लिए १९८४ की निशान तय कर रहे थे जब डॉ. ब्रह्मप्रकाश की मौत की खबर आई। मेरे लिए वह एक और सदमा था। पहली SLV की नाकामयाबी के वख्त जिस तरह उन्होंने थारस दी थी मुझे वो यद् करके मैं और ज्यादा ग़मगीन हो गया। प्रो. साराभाई अगर VSSC के निर्माता थे , बनाने वाले थे तो डॉ. ब्रह्मप्रकाश उसके आमिल थे, एक्झिक्यूटर थे। उनकी विनम्रता ने मुझे बड़ी हद तक नर्म कर दिया था। और मैंने अपने तुन मिजाजी पर काफी काबू कर लिया। उनकी हलीमी सिर्फ अपनी खुबियत तक ही महबूर नहीं थी। बल्कि अपने से छोटा को इज्जत देना भी उनकी आदत में शामिल था। उनके बर्ताव और सुलूक में ये बात नजर आ जाती थी की कोई सख्स बेखामियो से खाली नहीं है। यहाँ तक की अफसर भी, लीडर भी, रहनुमा भी। वो बहुत बड़े दानेश्वर थे, एक कमजोर से शरीर के अंदर उनमे बच्चों जैसी मासूमियत थी। मुझे वो हमेशा साइंसदानों में संत नजर आते थे। 

पृथ्वी का काम अपनी तकमील तक पहुँच रहा था जब १९८८ में दाखिल हुए। २५ फरवरी, १९८८ सुबह ११ बजकर २३ मिनट पर पृथ्वी की पहली प्रवास वाकेफ हुई। हमारे मुल्क में वो एक सरफेस टू सरफेस मिसाइल ही नहीं बल्कि आइंदा आने वाली तमाम किसम की मिसाइल का बुनियादी नक्शा भी था। भविष्य का मॉड्यूल था वो। पृथ्वी ने हमारे आस-पड़ोस के मुल्कों को दहला दिया । मगरवी यानी वेस्टर्न मुल्कों को पहले तो हैरत हुई फिर गुस्से का इजहार किया और पाबंदी लगा दी हिंदुस्तान के लिए की वो ऐसी कोई चीज बहार के मुल्कों से न खरीद सके जो उनके मिसाइल प्रोग्राम में इस्तेमाल हो सकती हो या कम आ सकती हो। मिसाइल की इजात में हिंदुस्तान के खुदमुख्तारी ने दुनिया के तमाम तरक्की आफता मुल्कों को परेशान कर दिया। 

अग्नि की टीम में ५०० से ज्यादा साइंस दान सामिल थे। अग्नि की प्रवास २० अप्रैल, १९८९ तय पाई थी। लॉन्च की तमाम तैयारियां मुक्कम्मल हो चुकी थी और हिफाजत के लिए यह फैसला किया गया कि लॉन्च के वख्त आसपास के तमाम गाँव खाली करा दिए जाए। अखबारात और दूसरे मीडिया ने इस बात को बहुत उछाला। २० अप्रैल पहुँचते पहुँचते तमाम मुल्क की नजरे हम पर टिकी हुई थी। दूसरे मुल्कों का दबाव बढ़ रहा था कि हम इस तजुर्बे को मुल्तवी कर दे या खारिज कर दे। लेकिन सरकार मजबूत दीवार की तरह हमारे पीछे खड़ी रही। और किसी तरह हमें पीछे नहीं हटने दिया। प्रवास से सिर्फ १४ सेकंड पहले हमें कंप्यूटर ने रुकने का इशारा किया। किसी एक पुर्जे में कोई खामी थी। वो फ़ौरन ठीक कर दी गई। लेकिन उसी वख्त डाउन रेंज स्टेशन ने रुकने का हुक्म दिया। चंद सेकंड्स में कई रुकावटे सामने आ गई और प्रवास मुल्तवी कर दी गई। 

अखबारात ने अस्तीने चढ़ा ली। हर बयान ने अपनी अपनी तरह की वाजुआत निकाल ली। कर्टूनिस्ट सुधीर राव ने एक कार्टून साया किया जिसमें एक खरीदार दुकानदार को सामान वापिस करते हुए कह रहा था अग्नि की तरह वो भी नहीं चली।  एक कार्टून में दिखाया गया कि साइंसदान कह रहा है सब ठीक था बस स्विच बटन नहीं चला। 



हिंदुस्तान टाइम्स के कार्टून में एक नेता रिपोर्टर को समझा रहा है, डराने की कोई बात नहीं वह बड़ी अमन पसंद मिसाइल है। इससे कोई मरेगा नहीं। 

करीब १० रोज दिन रात काम चला मिसाइल की दुरस्ती पर। और आख़िरकार साइंसदानों ने एक नई तारीख तय की अग्नि की प्रवास के लिए। मगर फिर वही हुआ। १० सेकंड पहले कंप्यूटर ने रूकावट का इशारा किया। पता चला एक पुर्जा काम नहीं कर रहा है। प्रवास फिर से मुल्तवी कर दी गई। ऐसी बात किसी भी साइंस के तजुर्बे में हो जाना आम बात है। गैर मुल्कों में भी कई बार होता है। लेकिन उम्मीद से भरी हुई कोम हमारी मुश्किलें समजने को तैयार नहीं थी। 

हिन्दू अख़बार में केशव का एक कार्टून छपा जिसमे एक दिहाती कुछ नोट गिनते हुए कह रहा था मिसाइल के वख्त गाँव से हट जाने का मुआवजा मिला है। दो-चार बार और ये तजुर्बा मुल्तवी हुआ तो मैं पक्का घर बनवा लूंगा। 

अमूल बटर वालो ने अपने होल्डिंग पर लिखा अग्नि को ईंधन के लिए हमारे बटर की जरूरत है। 

अग्नि की मरम्मत का काम जारी रहा। आख़िरकार एक बार फिर २२ मई तारीख अग्नि की प्रवास के लिए तय पाई।  उसकी पिछली रात डॉ. अरुणाचलम, जनरल के. एन. सिंह और में डिफेन्स मिनिस्टर के. सी. पंथ के साथ चाहलपंथि कर रहे थे। पुरे चाँद की रात थी। हाई टाइड का वख्त था और लहरे गरज गरज कर खुदा की खुशमत का नाम ले रही थी। कल अग्नि की प्रवास कामयाब होगी या नहीं बार बार यही सवाल हमारे दिमाग में गूंज रहा था। 



डिफेन्स मिनिस्टर ने एक लंबी ख़ामोशी को तोड़ते हुए पूछा ," कलाम! कल अग्नि की कामयाबी के लिए क्या चाहते हो तुम?" मैं क्या चाहता था? क्या था जो नहीं था मेरे पास? अपने ख़ुशी के इजहार के लिए मुझे क्या करना चाहिए? और अचानक मुझे जवाब मिल गया। " हम एक लाख पेड़ो की कॉम्पले लगाएंगे।"  मैंने कहा और उनके चेहरे पर रौनक आ गई। " तुम अपनी अग्नि की कामयाबी के लिए धरती माँ का आशीर्वाद चाहते हो। " वो बोले। उन्होंने पेशवाई की।


अगले दिन सुबह ७  बजकर१० मिनट पर अग्नि लॉन्च हुई। कदम कदम सही निकला। मिसाइल ने जैसे टेक्स्टबुक याद कर ली हो। जैसे सबक यद् कर लिया था। हर सवाल का सही जवाब मिल रहा था। लगता था एक लंबे खौफनाक ख्वाब के बाद एक खूबसूरत सुबह ने आँख खोली है। पाँच साल की मुस्खबत की बाद हम लॉन्च पेड़ पर पहुचे थे। इसके पीछे पाँच लंबे सालो की नाकामयाबी , कोशिशें और इम्तिहान खड़े थे। इस कोशिश को रोकने के लिए हिंदुस्तान ने हर तरह के दबाव को बर्दाश्त किए थे । लेकिन हमने कर दिखाया जो करना था। मेरी जिंदगी का सबसे कीमती लम्हा था वो। वो मुट्ठी भर सेकंडस ६०० सेकंड्स की वो प्रवास जिसने हमारी बर्षो की थकान दूर कर दी। बर्षो की मेहनत को कामयाबी का तिलक लगाया। 

उस रात मैंने अपनी डायरी में लिखा- 
अग्नि को इस नजर से मत देखो। यह सिर्फ ऊपर उठने का साधन नहीं है, न शक्ति की नुमाइश है। अग्नि एक लॉ है जो हर हिंदुस्तानी के दिल में जल रही है। इसे मिसाइल ही मत समझो। यह कौम के माथे पर चमकता हुआ आग का सुनहरी तिलक है। 

१९९० के रिपब्लिक डे पर देश ने मिसाइल प्रोग्राम की कामयाबी का जशन मनाया। मुझे पद्मविभूषण से नवाजा गया। और डॉ. अरुणाचलम को भी।

१० साल बाद पद्मविभूषण की यादे एक बार फिर हरी हो गई। रहनसहन मेरा अब भी वैसा ही था जैसे तब था । १०×१२ का एक कमरा किताबो से भरा हुआ और कुछ जरुरत का फर्नीचर, जो किराए पर लिया हुआ था। फर्क इतना ही था कि तब यह कमरा त्रिवेंद्रम में था अब हैदराबाद में। वेटर मेरा नास्ता लेकर आया- इडली और छास, और आँखों में खामोश मुस्कराहट मुबारकबाद की। मै अपने हमवतनों की इस नवाजिश से छलक गया। 

मैं जानता हूँ की बहोत से साइंसदान और इंजीनियर मौका मिलते ही वतन छोड़ जाते है। दूसरे मुल्कों में चले जाते है ज्यादा रूपया कमाने के लिए। ज्यादा आमदनी के लिए। लेकिन यह आदर , महोब्बत और इज्जत क्या कमा सकते है जो उन्हें अपने वतन से मिलती है?


मेरे ख्याल से मेरे वतन के नौजवानों को एक साफ़ नज़रिए की और दिशा की जरूरत है। तभी यह इरादा किया कि मैं उन तमाम लोगो का जिक्र करू जिनकी बदौलत मैं यह बन सका जो मैं हूँ। मगशद यह नहीं था कि मैं कुछ पढ़े लिखे लोगो का नाम लूँ बल्कि यह की कोई शख्स कितना भी छोटा क्यों न हो उसे हौसला नहीं छोड़ना चाहिए। मसल्ले, मुश्किलें जिंदगी का हिस्सा हैऔर तकलीफे कामयाबी की सच्चाई है। जैसे कहा है किसी ने-

खुदा ने यह वादा नहीं किया कि 

आसमान हमेशा नीला ही रहेगा
जिंदगी भर फूलो से भरी राहे मिलेगी
खुदा ने यह वादा नहीं किया कि
 सूरज है तो बादल नहीं होंगे, 
ख़ुशी है तो गम नहीं, 
सुकून है तो दर्द नहीं होगा। 

खुदा ने ये वादा जरूर किया है,

हर दिन के लिए शक्ति होगी,
मजदुर के लिए आराम होगा
और रास्ते मे रोशनी होगी।


मैंने कई बार यह देखा है कि  बहोत से भारतीय अपने जीवन में बिनजरूरी आफत से लड़ रहे है क्योंकि वे यह नहीं जानते कि अपने इमोशन्स को कैसे मैनेज करे। वे लोग कुछ प्रकार के मानसिक जड़ता से पेरेलाइझ हो चुके है।  वाक्यांश जैसे की ' आगामी सबसे अच्छा विकल्प', 'सिर्फ संभावित विकल्प या उपाय' और' जब की अच्छे के लिए चीजो में बदलाव आता है' यह सब  हमारे बिज़नस बातचीत के लिए आम हो गए है। हम इस बारे में क्यों नहीं लिखते की गहरी जड़े के लक्षण होते है जो उनको व्यापक रूप से प्रकट करता है, स्वयं हरवादी के सोच का प्रकार और नकारात्मक व्यव्हार है। 

मुझे ऐसा कोई गुरुर नहीं की मेरी जिंदगी सबके लिए एक मिसाल बनेगी। मगर यह हो सकता है कि कोई मासूम बच्चा किसी गुमनाम सी जगह पर जो समाज के मजूर हिस्से से ताल्लुक रखता हो यह पढ़े और उसे चेन मिले। यह पढ़े और उसकी उम्मीद रोशन हो जाए। हो सकता है यह कुछ बच्चों को नाउम्मीदी से बहार ले आए और जिसे वो मजबूरी समझते है वो मजबूरी न लगे। उन्हें यकीन रहे की वो जहाँ भी रहे खुदा उनके साथ है।

काश हर हिंदुस्तानी के दिल में जलती हुई लॉ को पर लग जाए और उस लॉ की प्रवास से सारा आसमान रोशन हो जाए। 

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